उधर से, यादों के उस पार से
खूशियां चूम के आया हूँ
आज मैं बचपन के बाजार से
घूम के आया हूँ।
उस चाँदनी रात मे चाँद पे
जाने के सपने देख रहा था।
उन तारो पे जा लगे
मैं वो पत्थर फेंक रहा था।
उस आम के बगीचे से
कुछ आम चुराये मैंने
कुछ उसी समय पे खा लिए
कुछ कल लिए छुपाए मैंने।
और छाते हुये बादलो के नीचे
मैं झूम के आया हूँ।
आज मैं बचपन के बाज़ार से
घूम के आया हूँ।
यारो के साथ कतार मे
मैं भी स्कूल गया था।
कल क्या था या कल क्या होगा,
मानो जैसे भूल गया था।
हर एक रात नई थी जैसे
हर एक दिन नया था।
कू कू करके मैंने भी
कोयलों को चिढ़ाया था।
कोयल से याद आया
कई गीतो को मैं भी तो
झूम झूम के गाया हूँ।
आज मैं बचपन के बाज़ार से
घूम के आया हूँ।
खूशिया उचाइयों पर थी हमारी
हमारी उच्चि उड़ती पतंगो के साथ
खूब उड़ाया हमने, आसमां सजाया मैंने।
लो करली हमने उड़ते जहाजो से बात।
गिल्ली डंडे के खेल मे गिल्ली के साथ
खूशिया मैं उड़ाया हूँ
छुपा छुपी मे उस टूटे मकान मे
यादे छुपाकर आया हूँ।
और चिक्का कबड्डी के खेल मे
धरती माँ को चूम के आया हूँ।
आज मैं बचपन के बाज़ार से
घूम के आया हूँ।।
आज मैं बचपन के बाज़ार से घूम के आया हूँ।
सतीश ‘कौतूहल’
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